उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। यहाँ हर पेड़, हर पत्थर, हर नदी और हर पर्वत के साथ कोई न कोई आस्था जुड़ी होती है। इसी आस्था में कुछ ऐसे रहस्य भी छुपे होते हैं जो समय-समय पर सामने आते हैं और हमें यकीन दिलाते हैं कि कोई शक्ति सच में हमारी रक्षा कर रही है।
ये कहानी भी एक ऐसे ही गांव की है — एक सच्ची घटना। मैं गांव और व्यक्ति का नाम गोपनीय रखूंगा, लेकिन जो कुछ हुआ वो आज भी गांव के लोग याद करते हैं।
ये घटना मेरे गांव के पास के ही एक गांव की है। जैसे उत्तराखंड में हर साल दो बार फसल काटी जाती है, उसी तरह यहां भी एक परंपरा है। माना जाता है कि भूमि देवता गांव की रक्षा करते हैं। लोग उन्हें खुश करने के लिए बकरे की बलि चढ़ाते हैं और आटे के मीठे पकौड़े बनाकर पूरे गांव में बांटते हैं।
हमारे गांव में भी एक पवित्र स्थान है जहां लोग भूमि देवता को मानते हैं। वहां एक बहुत पुराना पीपल का पेड़ और एक साल का पेड़ है — बड़े और बहुत ही पुराने। और ऐसा ही कुछ पास वाले गांव में भी है। हर साल जब फसल की कटाई होती है, तो गांव के लोग अपने खेतों की उपज लेकर मंदिर में आते हैं। उसी दिन वहां दो बकरों की बलि दी जाती है और मिठे पुए-पकौड़े बनाए जाते हैं।
लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं —
“हे भूमिया, हमारी रक्षा करना,
गांव की रक्षा करना,
गाड़ी-नगरी की रक्षा करना,
दूर परदेश में रह रहे हमारे बच्चों की भी रक्षा करना।”
ये माहौल बहुत श्रद्धा से भरा होता है। महिलाएं, बुज़ुर्ग, बच्चे — सभी इसमें शामिल होते हैं। बच्चे तो मिठे पकौड़े बड़े चाव से खाते हैं, और बड़े लोगों को देखकर पूजा की नकल भी करते हैं।
तीन दिन बाद जो हुआ, वो आज भी रूह कंपा देता है…
इस घटना के तीन दिन बाद कुछ बच्चों ने मासूमियत में, शायद खेल या पूजा के भाव से, कुछ ऐसा करने की सोची जो आगे चलकर गांव की सोच बदलने वाला था।
बच्चों ने अपने-अपने घरों से आटा लाया। मंदिर में जो पुरानी सी कड़ाही थी, उसमें तेल डालकर खुद ही मिठे पकौड़े तलने लगे। फिर हाथ जोड़कर बोले —
“हे भूमि देवता, हमारी, हमारे गांव की और विदेश में रह रहे बच्चों की रक्षा करना।”
पर तभी एक बच्चा बोल पड़ा —
“अभी तक बकरे की बलि तो हुई ही नहीं।”
फिर एक दूसरे ने कहा —
“चलो इन दो को बकरा बना देते हैं।”
अब जो हुआ वो बेहद डरावना था। दो बच्चे घुटनों के बल बैठ गए, जैसे बकरा बैठता है। उनमें से एक बच्चा मंदिर में रखा बलि वाला चाकू उठा लाया। उसने उस ‘बकरे’ के सिर पर पानी डाला और सब बच्चे चिल्लाने लगे —
“बली दो! बली दो!”
अब वो बच्चा जैसे ही चाकू चलाने वाला था, ऐसा लग रहा था जैसे किसी के घर के दो दीपक बुझने वाले हों — हमेशा के लिए।
फिर हुआ चमत्कार…
उसी वक्त वहां एक दाढ़ी वाला वृद्ध व्यक्ति आकर चिल्लाया —
“रुको बच्चो! ये क्या कर रहे हो?”
उसकी आवाज़ इतनी तेज़ और डरावनी थी कि सभी बच्चे हक्के-बक्के रह गए। वो चाकू वहीं गिरा दिया गया और सब बच्चे चीखते हुए मंदिर से भागे। पकौड़े वहीं छूट गए और बच्चे ऐसे भागे जैसे उनके पीछे कोई भयानक जानवर लगा हो।
जब बच्चों ने अपने घर जाकर ये बात बताई, तो उनके माता-पिता सन्न रह गए। पूरे गांव में सनसनी फैल गई। अगले दिन गांव के लोगों ने पास वाले गांव में जाकर पूछताछ की —
“क्या ऐसा कोई वृद्ध व्यक्ति आपके गांव से है?”
पर हर जगह से जवाब मिला —
“नहीं, हमने तो ऐसा कोई नहीं देखा।”
अब लोगों को समझ आ गया — वो वृद्ध कोई आम इंसान नहीं था… वो स्वयं भूमि देवता थे, जिन्होंने बच्चों की जान बचाई।
उस दिन के बाद… एक बदलाव आया
उस घटना के बाद पूरे गांव में एक ही चर्चा थी। गांववालों ने तय किया कि अब से बकरे की बलि नहीं दी जाएगी। पूजा होगी, पकौड़े बनेंगे, लेकिन प्राणों की आहुति नहीं होगी।
आज भी ये घटना गांव में सुनाई जाती है। वो बच्चे अब खुद माता-पिता बन गए हैं और अपने बच्चों को बताते हैं —
“एक बार हमसे एक बड़ी भूल होते-होते बची थी… और हमें बचाने खुद भगवान आए थे।”
कहानी से सीख:
- मासूमियत में की गई पूजा और भक्ति अगर अंधविश्वास में बदल जाए, तो वो खतरनाक हो सकती है।
- कभी-कभी हमारी परंपराएं सिर्फ मान्यताओं के नाम पर ऐसी हो जाती हैं जो आज के समय में गलत हैं।