सुल्ताना डाकू का किला और खूनीबड़ गांव की कहानी: एक ऐतिहासिक यात्रा

सुल्ताना डाकू का किला और खूनीबड़ गांव की कहानी: एक ऐतिहासिक यात्रा

सुल्ताना डाकू का किला

बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में नजीबाबाद और कोटद्वार क्षेत्र में सुल्ताना डाकू का खौफ था। वह न सिर्फ कोटद्वार से लेकर बिजनौर और कुमाऊं तक के क्षेत्र में अपना आतंक फैलाए हुए था, बल्कि लूटपाट करने से पहले अपने आने की सूचना भी देता था, जिससे लोग और प्रशासन पहले से ही तैयार हो जाते थे। इस खौफनाक डाकू से जुड़ी एक प्रमुख जगह नजीबाबाद का किला है, जिसे पहले नवाब नजीबुद्दौला ने बनवाया था, लेकिन बाद में सुल्ताना डाकू ने उस पर कब्जा कर लिया था।

सुल्ताना डाकू का आतंक: एक राजा के रूप में

सुल्ताना डाकू का आतंक न केवल उसके लूटने की रणनीतियों के लिए प्रसिद्ध था, बल्कि वह अपने शिकार से पहले उसे चेतावनी भी भेजता था। यही कारण था कि लोग उसकी डाकूगिरी से काफी डरते थे। 1915 से 1920 के बीच सुल्ताना ने कोटद्वार-भाबर क्षेत्र के प्रसिद्ध जमींदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी, जिसमें उसने बताया कि वह एक खास दिन उनके घर लूट करने आ रहा है। इस सूचना से उमराव सिंह काफी नाराज हुए और उन्होंने इस सूचना को पुलिस तक पहुंचाने की योजना बनाई।

कोटद्वार थाने तक सूचना भेजने के लिए उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को घोड़े पर भेजा। लेकिन दुर्भाग्यवश, उस व्यक्ति का सामना दुर्गापुरी के पास सुल्ताना और उसके साथी से हुआ। सुल्ताना और उसके साथी विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी जैसी दिखती थी। सुल्ताना ने घोड़े पर सवार व्यक्ति से पूछा कि वह कहां जा रहा है और उसने घोड़े की पहचान भी की। इस व्यक्ति ने सुल्ताना को पुलिस समझते हुए चिट्ठी दे दी, जिससे सुल्ताना को गुस्सा आ गया।

खूनीबड़ गांव का नामकरण और सुल्ताना की कातिलाना तहरीक

सुल्ताना ने उमराव सिंह की सूचना पुलिस को देने के कारण उसे मारने का फैसला किया। यदि उमराव सिंह ने सुल्ताना का आदेश माना होता और पुलिस को सूचना नहीं दी होती, तो शायद उनकी जान बच जाती। इस घटना के बाद सुल्ताना ने उमराव सिंह को मार डाला और उसके बाद वह काफी शक्तिशाली हो गया।

भाबर क्षेत्र में खूनीबड़ गांव एक प्रसिद्ध स्थान बना, जहां एक बड़ का पेड़ था, जिसके बारे में कहा जाता था कि सुल्ताना डाकू लूटे गए लोगों को मारकर उनकी लाशें उस पेड़ पर टांग देता था, जिससे उसका डर गांव में हमेशा बना रहे। इसलिए उस गांव का नाम आज भी “खूनीबड़” पड़ा है।

सुल्ताना डाकू की गिरफ्तारी और उसकी मौत

1923 में, सुल्ताना डाकू के आतंक को समाप्त करने के लिए फ्रेडी यंग नामक अधिकारी ने तीन सौ सिपाही और पचास घुड़सवारों के साथ ताबड़तोड़ कार्रवाई की और अंततः 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना डाकू को नजीबाबाद के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया। उसके साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे। इस मिशन में जिम कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी।

नैनीताल की अदालत में सुल्ताना डाकू पर मुकदमा चलाया गया और उसे फांसी की सजा सुनाई गई। 8 जून 1924 को हल्द्वानी की जेल में सुल्ताना डाकू को फांसी दी गई। उस समय उसकी उम्र मात्र 30 साल थी, और उसकी पूरी जिंदगी बाकी थी।

सुल्ताना डाकू की छवि: एक नायक या डाकू?

जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब “माय इंडिया” में सुल्ताना डाकू के बारे में लिखा है, “सुल्ताना ने कभी भी गरीबों से एक कौड़ी भी नहीं लूटी। उसका दिल गरीबों के लिए बहुत बड़ा था। जब भी उसे किसी ने चंदा मांगा, उसने कभी इनकार नहीं किया और जब भी उसने छोटे दुकानदारों से कुछ खरीदा, तो उसने उस सामान का दोगुना दाम चुकाया।”

सुल्ताना का किला और उसका छुपा खजाना

नजीबाबाद में जिस किले पर सुल्ताना ने कब्जा किया था, आज भी उसके खंडहर मौजूद हैं। उस किले में एक तालाब था, जहां कहा जाता था कि सुल्ताना ने अपना खजाना छुपाया था। हालांकि बाद में यहां खुदाई की गई, लेकिन कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। कुछ लोग मानते हैं कि किले के अंदर सुल्ताना ने एक सुरंग बनाई थी, जो नजीबाबाद पुलिस थाने तक जाती थी। इस सुरंग का इस्तेमाल वह अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए करता था।

फिल्म और मीडिया में सुल्ताना डाकू का चित्रण

1956 में मोहन शर्मा ने “सुल्ताना डाकू” नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें जयराज और शीला रमानी ने अभिनय किया था। इसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने एक और फिल्म बनाई, जिसमें दारा सिंह ने मुख्य भूमिका निभाई। इन फिल्मों ने सुल्ताना डाकू की छवि को एक रोमांचक और नायक के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन उसकी वास्तविक कहानी आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है।

Deepak Sundriyal

मेरा नाम दीपक सुन्द्रियाल है। मैं अल्मोड़ा के एक छोटे से गाँव से आता हूँ। अपनी पढ़ाई मैंने अपने गाँव से ही पूरी की है। अब मैं दिल्ली की भीड़भाड़ में अपने सपनों को पूरा करने में लगा हूँ। लेकिन आज भी मेरी कहानियों में मेरा पहाड़, मेरी पहाड़ी ज़िंदगी और वहाँ की सादगी बसी हुई है। मैं आज भी हर दिन अपनी लिखी पंक्तियों के ज़रिए अपने गाँव को जीता हूँ।
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